Natasha

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तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी

उसने जेब में से बीड़ी निकाली और ठंडी-ठंडी रेलिंग पर बैठकर बीड़ी के कस लगाने लगा।

तभी इमामदीन के मुहल्ले के पीछे से मस्जिद में से अज़ान पढ़ने की आवाज़ आई। प्रभात का अँधेरा एक ओर परत छनकर गिर गया था और आसपास के घर कुछ-कुछ साफ़ नज़र आने लगे थे। नत्थू रेलिंग पर से उतर आया और बीड़ी बुझा दी, और फिर से इमामदीन के मुहल्ले की गलियों का रुख किया। उसे सहसा याद हो आया था कि मुरादअली इसी 'कमेटी' के मैदान के एक ओर कहीं रहता था, उसे यकीनी तौर पर तो मालूम नहीं था लेकिन उसने दो-एक बार मुरादअली को उस ओर से आते देखा था। यों तो मुरादअली शहर-भर में घूमता था, अपनी पतली-सी छड़ी उठाए सड़कों के बीचोबीच चलता कभी किसी मुहल्ले में तो कभी किसी मुहल्ले में नज़र आया करता था। उसकी घनी काली मूंछों के बीच कभी भी उसके दाँत नज़र नहीं आते थे, हँसता भी, तब भी नज़र नहीं आते थे, केवल बाछे खिल जाती थीं और उसके गोलमटोल चेहरे में आँखें, छोटी-छोटी पैनी आँखें साँप की आँखों की तरह चमकती रहती थीं। क्या मालूम यहीं कहीं फिर से नज़र आ जाए। यहाँ से चल देना ही बेहतर है। अगर कहीं उसने देख लिया तो बिगड़ेगा। उसने नत्थू से ताकीद की थी कि सुअर की लाश उठवा देने के बाद वह उसी कोठरी में मुरादअली का इन्तज़ार करे पर नत्थू वहाँ से भाग आया था। सुअर-कटाई के पैसे मिल गए तो क्यों वहाँ कचरे और बू में पड़ा रहता?

नत्थू एक सँकरी गली में दाखिल हो गया और कुछ दूर जाकर दाएँ हाथ को एक दूसरी गली में मुड़ गया जो बल खाती हुई उत्तर की ओर चली गई थी। थोड़ी दूर जाने पर उसके कानों में किसी गान-मंडली की आवाज़ पड़ी, वैसे ही जैसे कुछ देर पहले फकीर के गाने की आवाज़ आई थी। वह कुछ ही क़दम आगे बढ़ पाया था कि दूर सामनेवाली गली के मोड़ पर उसे गानेवालों की आवाज़ अधिक स्पष्ट और ऊँची सुनाई देने लगी। नत्थू समझ गया था कि यह कोई प्रभातफेरी की मंडली होगी। उन दिनों शहर में कुछ ज़्यादा ही जलसे-जुलूस नज़र आने लगे थे। नत्थू की समझ में कुछ भी साफ़ नहीं था। पर हवा में नारे थे और उन्हें वह बहुत दिनों से सुनता आ रहा था। यह गान-मंडली कांग्रेसवालों की जान पड़ती थी क्योंकि मंडली के आगे-आगे कोई आदमी तिरंगा झंडा उठाए आ रहा था। जब मंडली नज़दीक पहुँची तो नत्थू एक ओर को गली की दीवार के साथ सटकर खड़ा हो गया। मंडली गीत गाती हुई सामने से गुजरने लगी। उसने देखा, आठ-दस लोग थे, दो-एक के सिर पर सफ़ेद गांधी टोपी थी, कुछ के सिर पर फैज टोपी थी, दो-एक सरदार भी थे। उम्र-रसीदा लोग भी थे और जवान भी। उसके पास से गुज़रने पर एक आदमी ने ऊँची आवाज़ में नारा लगाया :

"कौमी नारा!"

"बन्दे मारतम!"

"बोल भारतमाता की जय!

महात्मा गांधी की जय!'

इसके बाद सहसा केवल क्षण-भर की चुप्पी के बाद कुछ ही दूरी पर जहाँ एक और गली इस गली को काट गई थी, एक और नारा उठा :

“पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!

पाकिस्तान-ज़िन्दाबाद!

कायदे आज़म-ज़िन्दाबाद!

कायदे आज़म-ज़िन्दाबाद!"

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